
•बहुत पहले की बात है, स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे। जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुऐ थे। उनका समस्त पृथ्वी पर शासन था। वह देश की प्रजा से पुत्र की तरह व्यवहार करते थे तब भी कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये फलस्वरूप उनका शतुओं से युद्ध हुआ। राजा सूरथ पराजित हो गये। उनका पराक्रम समाप्त हो गया क्योकि उनके मंत्री परिषद के सदस्य ही शत्रुओं से मिल गये। इस प्रकार राजा सुरथ अपने को हारा हुआ समझकर अकेले शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार होकर एक घने जंगल में चले गये।

वहां जंगल में राजा ने मेधा मुनि का आश्रम देखा। मेधा मुनि के तप के प्रभाव से जंगल के हिसंक जीव भी मित्रवत भाव से रह रहे थे। राजा सुरथ यह चिंता करने लगे कि मेरा पूर्वजों का राज्य चला गया। मेरे दुराचारी परिजन और मंत्रीगण कैसे राज्य चला रहे होगें इसकी उन्हें चिंता होने लगी कि यदि मनमानी खजाना खाली कर देंगे तो राज्य का भविष्य नष्ट हो जायेगा।
एक दिन वही पर उन्होंने एक वैश्य को देखकर पूछा- भाई तुम कौन हो और इस वन में क्यों विचर रहे हो?वैश्य ने कहा कि- मैं समाधि नाम का एक वैश्य हूं मैं अपने बुद्धि और श्रम से पर्याप्त सम्पत्तिशाली रहा हूं । लेकिन मेरे दुष्ट स्त्री और पुत्रों ने धन के लोभ में मेरा सब कुछ अपरहण करके मुझको निकाल दिया है फिर भी हमको चिंता है कि मेरे परिवार के सभी लोग क्या कर रहे होंगे..?राजा ने पूछा – जिस लोभी परिवार ने आपका सबकुछ छीनकर घर से निकाल दिया उनके प्रति हमारा प्रेम कम क्यो नहीं हो रहा है? यही वार्ता करते हुए राजा सुरथ और समाधि नाम वैश्य सुमेधा ऋषि नाम के पास पहुंचे।
•उनसे प्रश्न किया कि हे महात्मा! हम दोनों अपनो के द्वारा अत्यत सताए जाने के बावजूद उनके प्रति हम दोनों का प्रेम कम क्यों नहीं हो रहा है और मेरी ममता बनी हुई है?सुमेधा ऋषि बोले कि – यह जगत महामाया के वशीभूत है लोगो को बहुत उपेक्षा के बाद भी संबंधियों का मोह नही जाता। इस पर राजा ने पूछा – कि जिन्हे आप महामाया नाम से सम्बोधित कर रहे है वह देवी कौन है?ऋषि ने कहा कि महादेवी नित्यस्वरुपा है तथा उन्होंने समस्त जगत है अपने में व्याप्त कर लिया है देवताओं के कार्य के लिए वे स्वयं प्रकट होती है और दुष्टों का संहार करके सज्जनों की रक्षा करती है।

मेधा ऋषि कहते है कि – पूर्वकाल में देवताओं और असुरों मे भयंकर युद्ध हुआ। देवताओं के राजा इंद्र और असुरों का राजा महिषासुर था। महिषासुर ने देवताओ को पराजित करके पूरा इन्द्रासन का स्वामी बन गया। उस महिषासुर ने देवताओं को जीतकर उन्हें उनके राज्य से भगा दिया और सूर्य, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण आदि का अधिकार छीन कर स्वंय अधिष्ठाता बन गया। देवता लोग ब्रह्मा और भगवान शंकर के पास गये और उनके द्वारा एवम् अन्य देवताओं के तेज से कल्याणमयी देवी प्रकट हुई उन्हें देखकर के देवता लोग बहुत प्रसन हुए। देवी ने देवताओं के हित में उच्च स्वर में महिषासुर को चुनौती देते हुए भयंकर गर्जना शुरु किया। महिषासुर की विशाल सेना जो पैदल, हाथी और घोड़ों पर सवार शस्त्रधारी सैनिकों से युक्त थी, देवी ने भयंकर युद्ध किया। खून की नदियां बहने लगी और जगदम्बा ने छड़ भर में सारी सेना को नष्ट कर दिया। फिर इसके बाद महिषासुर नामक राक्षस ने भैंसा का रूप धारण करके देवी से युद्व किया। देवी ने विशाल सेना और बड़े – बड़े वीर सेनापतियों के साथ महिषासुर का वध कर दिया और राक्षसो के विनाश से देवाता लोग प्रसन्न हो गये। देवी का यह भयंकर रूप पुराणों में चंद्रघंटा के नाम से बताया गया है।
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