
जौनपुर: आज पण्डित रूप नारायण त्रिपाठी की पुण्यतिथि पर उनकी पावन स्मृति में श्रद्धा सुमन समर्पित करने की कोशिश में उनके बहुआयामी रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालना चाहता हूं। आज के इलेक्ट्रॉनिक युग में जब पठन-पाठन की प्रक्रिया अंतिम सांस ले रही है ऐसे में अपने पोर्टल तीसरी आंख को माध्यम बनाकर उन्हें स्मरण करना चाहता हूं। अतएव उनकी प्रमुख रचनाओं का वर्णन करते हुए अपना श्रद्धा सुमन प्रस्तुत कर रहा हूं।
आपकी कविता का प्रस्फुटन तब प्रकाश में आया जब वह स्वतंत्रता संग्राम से जुड़कर जनसभाओं और प्रभात फेरियो में राष्ट्रीय कविताओं का गायन करने लगे और लोकगीतों की भी रचना करने लगे। राष्ट्रीय गीतों का लेखन आपकी प्रारंभिक रचनाओं में दिखाई पड़ता है। आप एक आयोजन में 1960 में बड़े कवि सम्मेलन में दिल्ली गए तो वहां तत्कालीन महाकवि भवानी प्रसाद मिश्र ने आपकी कविता को बहुत सराहा और प्रसन्नता व्यक्त की। एक कविता के माध्यम से आपने अपनी अभिव्यक्ति उन्हें दी और लिखा कि
दिन बीत गया तब उड़ने निकले हो
क्यों ? दो, उत्तर दो
सब नीडो को लौटेंगे
तब तुम विहग रहोगे ?
सब ऊष्मा घर को भोगें
तुम आकाश सहोगे ?
क्या सोच – समझकर
अम्बर किया दिशाओं को
किसलिए वक्ष से लगा लिया
ऐसी घनघोर निशाओं को?
दो, उत्तर दो
वस्तुत विलंब तो हो ही गया था किंतु पंडित जी रुके नहीं, आप उत्तर प्रदेश साहित्य समिति से जुड़ गए। महा पंडित राहुल सानस्कृतयन, डॉक्टर विद्या निवास मिश्र के साथ आप साहित्य उन्नयन की दिशा में आगे बढ़कर लोकगीतों पर काम करने लगे। लोकगीतों की भूमिका पर शोध करते हुए लोकगीतों के भाव पक्ष को चित्रित करने में महारथ हासिल किया। जैसे – रोजीरोटी के लिए युवा वर्ग महानगरों में जाकर फुटपाथों पर सोकर बहुत परेशानी से चार पैसे पैदा करता है। इस मार्मिक गीत में देखा जा सकता है।
सड़कों पर भटका करता हूँ
भूले-बिसरे बनजारे सा
इतनी सारी चहल-पहल में
मैं तनहा टूटे तारे सा
बेपहचाने कोलाहल की
हर शे मेरे लिये पराई
गाँव-देस की सुधि आई तो
रात-रात भर नींद न आई
कहाँ रहूँ क्या करूँ भला मैं
यहाँ किसी का हाथ न मिलता
कोलाहल में दिन कट जाता
सोने को फुटपाथ न मिलता
काव्य के कठिन विधान मुक्तक में आप सिद्धहस्त रहे। इस विधान में अपने लगभग 1000 मुक्तकों की रचना किया। इसमें इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी लोग वक्त आने पर उनके मुक्तक गुनगुनाने लगते हैं। कुछ मुक्तक देखे जा सकते हैं।
याचनाओं का यंत्र लगता है
कामनाओं का मंत्र लगता है
तेरा वह राजतंत्र सा चेहरा
इस दिनों लोकतंत्र लगता है
यार इस दौर की सियासत में
हर कदम पर फरेब होते हैं
एक दाराशिकोह की खातिर
चार औरंगजेब होते है
देखता हूं चलन सियासत का
हर कहीं बैर के बवंडर है
फर्क ऊंचाइयों में हैं लेकिन
नीचता में सभी बराबर है
आप कविता के प्रति आजीवन समर्पित तो थे ही कवि सम्मेलनों में मंच के प्रतिनिधि कवि के रूप में भी प्रतिष्ठित रहे।
उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन।